तब मैं अपनी तन्हाई को

ढलती सांझ क्षितिज पर आकर जब बिखेरती अरुणाई को
नज़्म सुना बहला लेती हूँ, तब मैं अपनी तन्हाई को
 
्सावन का आवारा बादल मेरी ज़ुल्फ़ें देखे, सोचे
आईने में देख रहा है, वो अपनी ही परछाई को
 
लांघ गये पग उसके जब से दहलीजों की लक्ष्मण रेखा
देखा करती सुबकी लेते मैं इक विधवा अँगनाई को
 
तुम अजनबी वफ़ा से फिर भी दोषी मुझको बतलाते हो
मैने गहना कर पहना है अपनी होती रुसवाई को
 
कोई आकर चंग बजाये तो शायद ये संभव होले
थिरकन की तानें मिल जाये<ं मेरी पायल शरमाई को
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मौसम सदा सुहाना होगा

 
 

शिकवा करते हो शोलों के दरिया में से जाना होगा
किसने तुम से कहा प्यार का मौसम सदा सुहाना होगा
 
उनसे अगर मुख्तलिफ़ हों तो ख़तावार समझे जाते हैं
इश्क ख़ता है उनकी नजरों में, भरना हर्जाना होगा
 
उल्फ़त के चिराग रोशन हैण गुलदस्ते के पहलू में अब
जिसने नहर निकाली वो तो सचमुच ही दीवाना होगा
 
पत्थर की मूरत को छप्पन भोग, आदमी को दो टुकड़े
जो देता, क्या सच में उसका ईश्वर से याराना होगा
 
वज़्मे सुख़न के काबिल मिसरा देती नहीं कलम अब कोई
बिखरेंगे अशआरजहाँ जाकर मेरे, वीराना होगा

आषाढ़ी मेघो की बिजली

आषाढ़ी मेघो की बिजली यों तो खूब कड़कती है
प्यासों को पानी देने का जतन कहां पर करती है
 
बचपन में दादी ने जो था कहा आज वो सत्य हुआ
जितनी खाली होती गगरी, उतनी और छलकती है
 
सपने फिर से हरियाली के बहला देते आंखों को
भोलेपन को चतुराई से यहां चतुरता छलती है
 
हम अंधियारे के आदी तो हुए नहीं हैं मर्जी से
दीपक की बाती ही चुन कर अंगनाई को जलती है
 
मकते से मतले की दूरी तय करने में पांव थके
बनी गीतिकायें ही केवल, गज़ल कहां पर बनती है 
 

फ़सल सुनहरी बो दी जाए

दिल की तड़पन, कसक सभी कुछ अब आंसू से धो दी जाये

फिर होठों पर मुस्कानों की फ़सल सुनहरी बो दी जाए

 

है तुमको उम्मीद अगर तो वो नहरें भी खोद सकेगा

पहले उसके हाथों में ला एक कुदाली तो दी जाये

 

सब कुछ लुटा बची है केवल रिश्तों की झीनी सी गठरी

अच्छा होगा ये गठरी भी अब राहों में खो दी जाये

 

हीरे हों सिक्के हों चाहे हो पत्थर का कोई टुकड़ा

कहलाती है भीख सदा जो बढ़ी आंजुरि को दी जाये

 

लिखते लिखते थकी कलम का केवल ये अरमान बचा है

शायद इक दिन कोई तवज़्ज़ो, उसकी गज़लों को दी जाये

साथ निभाता है

जो है दुश्मन अपना वह भी हँसकर साथ निभाता है
रिश्ता एक पुराना, सर से, पत्थर साथ निभाता है
 
सावन की भी रुत होती है हमने पढ़ा किताबों में
अपने बागीचे में केवल पतझर साथ निभाता है
 
साथ घड़ी की सुइतों के, सब रंग बदलते जाते हैं
बस पसली से मरते दम तक, खंज़र साथ निभाता है
 
बैसाखी पर टिक कर रहना, फ़ितरत हुई ज़माने की
बिन दीवारों के घर से कब, छप्पर साथ निभाता है
 
टुटी फ़ूटी दीवारें हैं   उखड़ा हुआ पलस्तर है
बात तरक्की वाली का यह, मंज़र साथ निभाता है
 

 

 

वैसा तो कुछ कहा नहीं था

तुमने जो कुछ समझा, हमने  वैसा तो कुछ कहा नहीं था
क्योंकि अपरिचय का जो पुल था बीच हमारे ढहा नहीं था
 
कैसे हम उनके अश्कों की कथा  ज़माने को    बतलाते
जो कुछ उन पर बीता, हमने वैसा कुछ भी सहा नहीं था
 
जाने कैसे डूब गये वो, न तो खबर     बाढ़ की आई
बाँध तोड़ कर रेला भी कोई बस्ती में बहा नहीं था
 
स्थितियों   के   लाक्षागॄह   में जीवन  ,घेरे है   दावानल
मन हो गया युधिष्ठिर अविचल, लेश मात्र भी दहा नहीं था
 
भटके नहीं कभी मेले में, हर इक राह मिली पहचानी
क्योंकि किसी ने पथ दिखलाने, हाथ हमारा गहा नहीं था
 
खुली हवा में नग्मे गाती, आज कलम लिखती अफ़साने
कल तक जो प्रतिबन्ध लगा था, आज शेष वो रहा नहीं था
 
अनुरूपा तुम जो लिखती हो, उसका शायद अर्थ नहीं है
पढ़ा सभी ने, पर होठों पर, लफ़्ज़ एक भी अहा नहीं था
 

वज़्म में कोई सुनाये

हम गज़ल की गुनगुनी गरमाहटोम में जब नहाये
मीत तेरे चित्र उस पल पास आकर मुस्कुराये
झूमती पगडंडियों ने जब कदम चूमे हमारे
यों लगा पग के अलक्तक सामने आ मुस्कुराये
पत्तियों के जब झरोखों से हवा ने झांक देखा
घुंघरुओं की नींद टूटी, कसमसाये झनझनाये
ख्वाब में रिश्ते हजारों दीप बन कर जल रहे थे
साजिशों की रोशनी में रह गये बस टिमटिमाये
जो कलम ने लिख दिया उस शेर की ख्वाहिश यही है
ढल सके वो इक गज़ल में, वज़्म में कोई सुनाये
अरुणिमा

पत्थर बहुत सारे

उड़ रहे हैं अब हवा में पर बहुत सारे

झुक रहे हैं पांव में अब सर बहुत सारे

क्या वज़ह थी कोई भी ये जान न पाया

बस्तियों में जल रहे हैं घर बहुत सारे

एक दो हों तो मुनासिब, सामना कर लें

ज़िन्दगी के सामने हैं डर बहुत सारे

हो नहीं पाया नफ़े का कोई भी सौदा

एक तनख्वाह और उस पर कर बहुत सारे

एक आंधी, एक तूफ़ां, एक है बारिश

इक दिलासा, हैं यहां छप्पर बहुत सारे

इल्तिजायें सब अधूरी ही रहीं आखिर

एक मज़नूं और हैं पत्थर बहुत सारे

चल रहे हैं राह में रंगीन ले हसरत

चुभ रहे हैं  पांव में कंकर बहुत सारे

राम नहीं हो

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नाम ढूँढ़ते हैं इक ऐसा, जैसा कोई नाम नहीं हो
सूरज निकले दोपहरी हो, लेकिन उसकी शाम नहीं हो
हमसे  सबको उम्मीदें हैं, जुदा नहीं हो तुम भी इससे
हम तो बन जायेंगे लक्षमण, लेकिन तुम ही राम नहीं हो
किस्सागोई की आदत तो साथ रही अपने सदियों से
लेकिन फिर भी ये चाहा है सारे किस्से आम नहीं हो
ज़ुल्फ़ों के घिर आये साये तो फिर हुई आरज़ू मन में
घटा घिरी ही रहे इस तरह, और कभी भी घाम नहीं हो
उनकी यादों ने यों घेराने घेरा आकर के मेरी गलियों को
ऐसा लम्हा ढूँढ़ रहे हैं जब हाथों में जाम नहीं हो

आज सुना जाते हैं

वो लिख देते रोज और हम कभी कभी ही लिख पाते हैं
वो कहते हर बात, हमें क्या कहना सोच नहीं पाते हैं
टकसाली सिक्कों की तो बहुतायत मिलती गली गली में
कारीगरी मिले जिनमें वे कभी कभी ही मिल पाते हैं
एक और शायर कलाम पढ़ गया ज़ीस्त की महफ़िल में आ
आगे  आने   वाले   देखें   क्या    क्या   नज़राने लाते हैं
जो  मशाल ले    राहनुमाई    की     बातें करते रहते हैं
शाम ढले पर चौराहों के वे ही दिये बुझा जाते हैं
कल ये मौसम हो या न हो, कल ये चज़्म रहे या उजड़े
यही सोच कर हाले दिल हम अपना आज सुना जाते हैं