सीने में उसकी बात का खंज़र उतर गया
इक देवता था जो मेरे भीतर वो मर गया
शुबहों की गुफ़्तगू बढ़ी है इस कदर यहाँ
बेखौफ़ जो था , वो महज साये से डर गया
वो इक शजर कि जिससे थी उम्मीद छांह की
पुरबाई क्या चली कि वो जड़ से उखड़ गया
राहों को नापने में लगे रह गये कदम
मंज़िल का ख्वाब टूट कर, गिर कर बिखर गया
सरहद से दे रही थी सदा मादरे वतन
कैसा अजीब शख्स था, कलियों पे मर गया
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सरहद से दे रही थी सदा मादरे वतन
कैसा अजीब शख्स था, कलियों पे मर गया
–सच, बहुत अजीब शक्स है.
-गजल पूरी की पूरी बहुत खूब कही.
वाह !
बहुत बढिया गज़ल है , हर शेर खूबसूरत है पर विशेष रूप से ये :
>शुबहों की गुफ़्तगू बढ़ी है इस कदर यहाँ
>बेखौफ़ जो था , वो महज साये से डर गया
अनूप
बहुत बढिया गजल है।
शुबहों की गुफ़्तगू बढ़ी है इस कदर यहाँ
बेखौफ़ जो था , वो महज साये से डर गया
बहुत सुन्दर गज़ल है.