जो है दुश्मन अपना वह भी हँसकर साथ निभाता है
रिश्ता एक पुराना, सर से, पत्थर साथ निभाता है
सावन की भी रुत होती है हमने पढ़ा किताबों में
अपने बागीचे में केवल पतझर साथ निभाता है
साथ घड़ी की सुइतों के, सब रंग बदलते जाते हैं
बस पसली से मरते दम तक, खंज़र साथ निभाता है
बैसाखी पर टिक कर रहना, फ़ितरत हुई ज़माने की
बिन दीवारों के घर से कब, छप्पर साथ निभाता है
टुटी फ़ूटी दीवारें हैं उखड़ा हुआ पलस्तर है
बात तरक्की वाली का यह, मंज़र साथ निभाता है
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कहाँ गायब हैं?? पूरे ढ़ेड महिने बाद!!!
बहुत उम्दा, अरुणिमा जी. अब निरंतर लिखिये.
Happy birthday likhoon kya?
kaash tumhein pahchaan na paati:)