ढलती सांझ क्षितिज पर आकर जब बिखेरती अरुणाई को
नज़्म सुना बहला लेती हूँ, तब मैं अपनी तन्हाई को
्सावन का आवारा बादल मेरी ज़ुल्फ़ें देखे, सोचे
आईने में देख रहा है, वो अपनी ही परछाई को
लांघ गये पग उसके जब से दहलीजों की लक्ष्मण रेखा
देखा करती सुबकी लेते मैं इक विधवा अँगनाई को
तुम अजनबी वफ़ा से फिर भी दोषी मुझको बतलाते हो
मैने गहना कर पहना है अपनी होती रुसवाई को
कोई आकर चंग बजाये तो शायद ये संभव होले
थिरकन की तानें मिल जाये<ं मेरी पायल शरमाई को
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लांघ गये पग उसके जब से दहलीजों की लक्ष्मण रेखा
देखा करती सुबकी लेते मैं इक विधवा अँगनाई को
-बहुत उम्दा!!
बहुत ही उम्दा रचना । लाजवाब अभिव्यक्ति
ढलती सांझ क्षितिज पर आकर जब बिखेरती अरुणाई को
नज़्म सुना बहला लेती हूँ, तब मैं अपनी तन्हाई को
वाह बहुत ही उम्दा बधाई
बहुत खूब…