दीवाली तो आई लेकिन दीपक नहीं जले
ऐसे जमे हुए रिश्ते थे, जरा नहीं पिघले
जिनसे परिचय नहीं हुए वे दुश्मन भी तो क्या
शिकवा उनसे है सीने में जो दिन रात पले
दोपहरी की धूप गंवाई इंतज़ार लेकर
अहसासों पर जमी हुई थोड़ी तो बर्फ़ गले
एक बार भी मुड़ कर उसने हमें नहीं देखा
हम अपने साये के पीछे सारी उम्र चले
रीत पुरानी थी जिसको हम छोड़ नहीं पाये
सूरज इन गलियों में आकर हर इक बार ढले
उमस भरी तन्हाई , चिपचिप दूर नहीं होती
सुधि यादों के पंखे को अब कितना और झले
शीश नवा कर हम भी ये बस दुहरा देते हैं
करमों की ये गति है शायद, टाले नहीं टले
दुनिया को मुस्कान बाँट कर दर्द पिया करते
अंधियारे का घर होता है हरदम दीप तले
अब न उमड़ता है आंखों में आंसू का कतरा
सीने पर आ पीड़ा चाहे जितनी मूँग दले.
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